दक्षिण भारत के राज्य (800ई से 1200 ई तक)part-१.१

दक्षिण भारत के राज्य (800ई से 1200 ई तक)

                                    नमस्कार आप सभी का स्वागत है आज के इस पोस्ट में आज हम रहने वाले हैं दक्षिण भारत के राज्य या उस समय की बात है 800 ईसवी और 1200 ई के बीच का समय था। ईसवी के बीच के कुछ दक्षिण भारत के राज्यों के बारे में हम इस पोस्ट में चर्चा करने वाले हैं तो इसके लिए आपका हमारी इस पोस्ट में बहुत-बहुत स्वागत है क्योंकि आज आप दक्षिण भारत के ऐसे राज्य के बारे में जानने वाले हैं जो आपको बारी बारी से वाकिफ कराएगी।

ऐसा माना जाता है कि पूर्व मध्यकाल में देश के उत्तर और दक्षिण भागों में राज्यों के बीच बहुत ज्यादा निकटता बढ़ गई थी और इसके कुछ कारण भी थे जो भारत के उन्हीं राज्य पर प्रभाव पड़ा इसकी वजह किसी एक या दो चीज की वजह से हुआ वह क्या है यह स्टेप बाय स्टेप जानते है।
पहला कारण  दक्षिण भारत के उत्तरी भाग के राज यूनी अपने राज्य अधिकार को गंगा नदी की घाटी तक बढ़ाने का प्रयास किया।
दूसरा कारण दक्षिण भारत में शुरू में हुए धार्मिक आंदोलन उत्तर भारत में भी लोकप्रिय हो जाना।

तीसरा कारण दक्षिण भारत के विभिन्न शासकों ने धार्मिक कर्मकांड और अध्ययन अध्यापन के लिए उत्तर भारत के ब्राह्मण वर्ग को दक्षिण भारत में बसने के लिए या उन्हें बचाने के लिए आमंत्रित करना या तीन कारण सबसे खतरनाक साबित हुए क्यों पूरे दक्षिण भारत के राज्यों को खतरे में डाल दिया था।
इन 3 कारणों से आप समझ गए होंगे कि भारत पर दक्षिण भारत की वजह से क्या प्रभाव पड़ा होगा। दरअसल हुआ यूं की दक्षिण भारत में आने वाले ब्राह्मणों को भूमि प्रदान किया गया परिणाम स्वरूप विशाल भारत देश के दोनों भागों के राज्यों के बीच निकटता बढ़ने लगी उत्तर और दक्षिण भारत के राज्य उस प्रकार अलग-अलग नहीं रहे जिस प्रकार से वे प्राचीन काल में थे । 
आठवीं सदी में दक्षिण भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों में बढ़ गया था इनमें से कुछ राज्यों के नाम है जो आपके सामने स्क्रीन पर इस प्रकार से -

                                          पल्लव, राष्ट्रकूट चालुक्य, चोल ,चेर ,पाण्डेय 

1. पल्लव - 

            चौथी शताब्दी पल्लव का उदय कृष्णा नदी के दक्षिण प्रदेश (आंध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु) में हुआ। नरसिंह वर्मा प्रथम एवं नरसिंह वर्मन द्वितीय इस वंश के प्रतापी शासक हुआ करते थे नरसिंह वर्मन प्रथम ने चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय को युद्ध में पराजित किया और "वातापीकोंडा" की उपाधि धारण की कथा कांचीपुरम को अपनी राजधानी बना लिया था।

कुछ कालांतर में चोल ,चालुक्य, पाण्डेय और राष्ट्रकूट ओसेन पल्लव क संघर्ष चलता रहा तथा 899 ईसवी में इस वंश के अंतिम शासक अपराजित वर्मा को चोरों ने हराकर उनके राज्य पर अपना अधिकार कर लिया था इस प्रकार से पल्लव वंश का या पर अंत हो गया इसके बाद पल्लव का शासनकाल पूरी तरह से खत्म हो चुका था ।

2. राष्ट्रकुट - 

            चालुक्य राजा कीर्तिवर्मन के सम्मान दुर्ग ने राष्ट्रकूट वंश की न्यू डाली राष्ट्रकूट दक्षिण भारत में अपनी शक्ति तथा साम्राज्य विस्तारित करने के नाम से आज भी जाना जाता है कृष्ण प्रथम गोविंद द्वितीय राजा ध्रुव धारा वर्ष गोविंद तृतीय अमोघवर्षा वाह कृष्ण जूती इस वर्ष के प्रमुख शासक थे जिन्होंने पूरे साम्राज्य का विस्तार किया था। राष्ट्रकूट की राजधानी" मान्यखेट"थी। कन्नौज तथा उत्तर भारत पर अधिकार करने के लिए राष्ट्रकूट ओ को गुर्जर प्रतिहार व पाल वंश से सतत संघर्ष करना पड़ा था जिससे उनकी शक्ति कमजोर हो गई थी सन 973 ईस्वी में चालुक्य शासक तैलप द्वितीय ने अंतिम राष्ट्रकूट शासक प्रकृति को पराजित करके राष्ट्रकूट ओ की शक्ति का दमन किया तथा उनके राज्यों पर अपना अधिकार जमा लिया।
राष्ट्रकूट का अंत हो गया लेकिन उन्होंने एक अच्छा काम किया राष्ट्रकूट के नरेश कृष्ण प्रथम ने एलोरा की गुफा में प्रसिद्ध कैलाश मंदिर का निर्माण पहाड़ी को काटकर करवाया था स्थापत्य दृष्टि से यहां मंदिर अदिति माना जाता है। 
राष्ट्रकूट के शासनकाल में प्रशासन की व्यवस्था राजा सर्वोच्च अधिकारी होता था तथा एवं मंत्रियों की सहायता से अपना शासन चलाता था या के राजा शिक्षक और कला के संरक्षक थे अमोघवर्षा प्रथम एक उच्च कोटि का लेखक भी था इस वंश के शासकों ने अनेक प्रकार के मंदिर का निर्माण करवाया तथा अपने इष्ट देवताओं जैसे कि शिव विष्णु की मंदिर स्थापित भी किया।



3. कल्याणी के चालुक्य - 

                                राष्ट्रकूट शासक कर्क धोती को पराजित करके चालुक्य शासक तैलप द्वितीय ने अपने राज्य की स्थापना करके कल्याणी को अपनी राजधानी बना लिया इसलिए राष्ट्रकूट कल्याणी के चालुक्य कहलाए । 

तैलप द्वितीय ने लगभग 24 वर्षों के बाद तक शासन किया अन्य प्रमुख शासक सत्यश्रय , समेश्वर प्रथम, विक्रमादित्य पंचम जय सिंह आदि सभी लोग मौजूद थे।

चालू की राजा की बात करें तो चालू ऊदार और कला प्रेमी थे सभी धर्मों का आदर करते थे ।

 ब्रह्मा विष्णु शिव में इनकी विशेष आस्था थी यह इनके द्वारा बनाई गई मंदिर है है माना जाता है चालू की कला की प्रमुख विशेषता हिंदू देवताओं के लिए चट्टानों को काटकर मंदिरों का निर्माण करवाना था मंदिर इस काल का सबसे महत्वपूर्ण मंदिर विरुपाक्ष का मंदिर था जो सुंदर के साथ-साथ बहुत बड़ा भी थ।


4. चेर राज्य  

                    अशोक के अशोक के शिलालेखों के अनुसार चेर वंश का स्थापना बहुत प्राचीन काल में हुआ था इनके राज्य में मालाबार त्रावणकोर और कोचीन शामिल थे चे राज्य के बंदर ग्रह व्यापार के बड़े केंद्र हुआ करते थे चोल वंश चेर वंश के वैवाहिक संबंध थे यह अधिक समय शासन नहीं कर सके आठवीं शताब्दी में पर लोगों ने 10 वीं शताब्दी में चोरों ने और 13वीं शताब्दी में पांडवों ने शेर राज्य पर अधिकार करके अपना वर्चस्व की स्थापना किया।


5 पाण्डेय राज्य

                       पांडे वंश प्राचीन तमिल राज्यों में से एक प्रमुख वंश हुआ करता था जिनकी राजधानी मदुरै हुआ करती थी पांडे राजाओं में अति केसरी मार्वल 1 प्रसिद्ध शासक हुआ करता था जिसने सातवीं शताब्दी में शेरों को हराया और चालू क्यों का साथ देकर पल्लव को हराया तथा अपना राज्य का विस्तार किया एक छोटी सी भाग में किया गया नौवीं शताब्दी में जटा वर्मा सुंदर प्रथम के प्रयासों से पांडवों की शक्ति अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गई थी उसने  चेर , चोल काकतीय होयसल आदि शासक को हराया था और कहीं पर भी अधिकार कर लिया था पांडे राजाओं द्वारा अनेक मंदिर बनाए गए जिनमें से श्रीरंगम और चिदंबरम के मंदिर प्रसिद्ध है तेरहवीं शताब्दी के अंत में पांडे राज्य का नामोनिशान मिट चुका था यहां पर इसके पश्चात चोल साम्राज्य बस गया था।

6. चोल साम्राज्य -

                    चोल साम्राज्य 9 वी शताब्दी के मध्य से 12 वीं शताब्दी तक तमिलनाडु ,आंध्र प्रदेश के कुछ भागों वा कर्नाटक पर शासन करने वाला वंश दक्षिण क्षेत्र में सर्वाधिक शक्तिशाली रहने लगा था। इस काल के चोल राजा को इतिहासकारों ने साहिल चोल कहते हैं चोल साम्राज्य की स्थापना विजय ने किया था उसने तंजोर के पल्लव को हराकर तंजोर पर अधिकार कर लिया था।

परानतक प्रथम ने मदुरै के पांडव राजा को हराकर दक्षिण में अपनी सीमाओं का विस्तार कर दिया मदुरै कोडवन (मदुरै का विजेता) की उपाधि धारण किया विश्व का सर्वाधिक पराक्रमी राजा राजा राज प्रथम हुआ करता था जिसने अपने योग्य से पराक्रम व राजा कौशल से एक विशाल चोल साम्राज्य का निर्माण किया उसने चेर शासकों को हराकर केरल पर पांडे राजा को हराकर अधूरे पर अधिकार कर लिया था तथा श्रीलंका के उत्तरभाग को जीतकर उसे अपनी साम्राज्य में मिला लिया और वहां का प्रांत बना दिया इस प्रांत का नाम उसने "mummadi' चोल मंडलम यह उसकी सबसे महत्वपूर्ण विजय मानी जाती है। 

राजाराम ने वेंगर्इ के चालुक्य को भी हराया था तथा समुद्र साम्राज्य के निर्माण व अपने व निजी व्यापार को बढ़ाने के लिए तथा उस पर कंट्रोल रखने के लिए कलिंग और लक्ष्यदीप के पुराने दीपू वा मालदीप को को जीतकर बड़े साम्राज्य का निर्माण किया उसने अनेक उठा दिया ग्रहण किया।

चोल शासक राजा राजा प्रथम ने तंजौर का प्रसिद्ध राजराजेश्वर मंदिर बनाया था जो परकोटे में स्थित है और लगभग 165 मीटर * 85मीटर से बना है जमीन से इस मंदिर की ऊंचाई लगभग 94 मीटर है।

राजा राज प्रथम के बाद उसका यशस्वी पुत्र राजेंद्र प्रसाद प्रथम गद्दी पर बैठा जिसने समस्त को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया थ। केरल तथा पांडे राज्य पर पुनः अधिकार कर लिया था पूरे राज्य में गंगा नदी अपना अधिकार जमा लिया था और "गंगाईकोंड" गंगा क्षेत्रों को जीतने वाला उपाधि धारण किया राजेंद्र प्रथम ने कावेरी नदी के मुंह पर अपनी नई राजधानी गंगाईकोंड चोलपुरम बनाई।

12 वी शताब्दी का चोल साम्राज्य का शासन यहां पर बना रहा किंतु देवी शताब्दी में मदुरै के पांडे तथा द्वार समुद्र मैसूर के निकट के होश वलों ने चोरों पर अपना स्थान बना लिया दक्षिण में कल्याणी के चालुक्य के स्थान पर काटती आए । वारंगल आंध्र प्रदेश को अपनी राजधानी बना लिया 12 वीं शताब्दी में दक्षिण में यादव वंश प्रसिद्ध रहा इसके पश्चात उन्होंने चालू क्यों तथा हो सालों से संघर्ष करके देवगिरी आज के समय में जिसे दौलताबाद को अपनी राजधानी बनाया इस अभी वर्षों का अस्तित्व 14वीं शताब्दी ताकि मिलता है किंतु चौधरी शताब्दी के शुरुआत में दिल्ली के सुल्तान ने और क्षेत्र में अधिकार के लिए सैन्य अभियान भारत के के साथ साथ वर्षों की शक्ति धीरे-धीरे खत्म होती चली गई आगे आ जाएंगे चोल प्रशासन की प्रमुख विशेषताएं आप हमारे साथ  इस वेब पर बने रहे।

 कक्षा 8 मैथ्स की समस्या का हल आपके लिए (बीजीय व्यंजक )

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