Class-8 (सामाजिक विज्ञान) अध्याय -1 भारत में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना और विस्तार

इस पोस्ट में हम ब्रिटिश सत्ता की स्थापना भारत में कैसे हुई और यहां ब्रिटिश अपना विस्तार कैसे किया। यह सब हम इस पोस्ट में पढ़ने वाले हैं तो आप इस पोस्ट में आखरी तक बने रहिए तो हम चलते हैं भारत में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना कैसे हुई और इसने  भारत में कैसे अपना विस्तार किया।
   यह बहुत पुरानी बात है तब सिकंदर द्वारा भारत पर आक्रमण के समय से भारत के इतिहास सतत संघर्ष का इतिहास रहा है भारत की विशाल संपदा, कई जातियों और आक्रमको को अपनी ओर आकर्षित करती रही है। शक, हूण और मंगोल इसके उदाहरण है, इन् आक्रमणकारियों में बहुत से या तो आक्रमण के बाद पराजित होकर वापस चले गए हैं व यहां के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में धूल मिल गए हैं, मुगल आक्रमण के बाद भारत के एक बड़े भूभाग में मुगलों का राज्य स्थापित हो गया। मुगलों के काल में मुगल-राजपूत, मुगल -मराठा, मोगल -सीख के बीच में बहुत युद्ध हुए।
मुगलों के पश्चात भारत में यूरोपी नागरिक का आगमन होने लगी। जिसमे डच, फ्रांस, पुर्तगाली और अंग्रेज आदि इनमें प्रमुख थे। व्यापार और व्यापार के बाद अपना- अपना राज्य स्थापित करने के लिए इनमें संघर्ष चलता रहा। अतः भारत के बहुत बड़े भाग में अंग्रेज की सत्ता की स्थापना हुई कथा देसी रियासत से संधि कर उन्हें अपनी सत्ता के अधीन कर लिया सत्ता के अधीन कर लिया। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अंग्रेजी सरकार के शासन काल में सभी ने बहुत संघर्ष किया। इस संघर्ष में भारत की जनता ने सक्रिय भाग लिया तथा अंततः 1947 में भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त की। इसके आगे हम कुछ और टॉपिक में भारत की स्वतंत्रता के लिए किए गए संघर्ष के बारे में पड़ेंगे।

भारत में यूरोपीय  व्यापारिक कंपनियों का आगमन

        15वी शताब्दी के यूरोप में घटित हुई प्रमुख घटनाओ , कुस्तुन्तुनिया प् तुर्कों का अधिकार, पुनर्जागरण आन्दोलन , वैज्ञानिक एवं ओधोगिक क्रांति तथा भौगोलिक खोजो के प्रति आकर्षण , ने भारत एवं पूर्व के देशो के प्रति यूरोपीय लोगो में एक नया आकर्षण उत्पन्न किया|  यूरोप में हुई व्यापारिक एवं ओधोगिक क्रांति ने वहा के व्यापारियों को नया बाजार तलाशने के लिए विवश कर दिया |पूर्व के लिए नविन मार्गो की खोज का बीड़ा कोलम्बस , वास्को डिगामा जैसे प्रसिद्द नाविकों ने उठाया | कोलम्बस 1498 ई. में भारत के पश्चिमी समुद्री तात कालीकट पंहुचा | कालीकट के रजा  जमोरिन ने उसका स्वागत किया |

भारत में पुर्तगालियो का आगमन 

1498 ई . में वास्को  डिगामा के भारत आगमन ने यूरोपीय व्यापारियो के लिए भारत का द्वार खोल दिया यूरोपीय व्यापारियों का भारत के राजा - महाराजाओ ने भिन्न -भिन्न कारणों से स्वागत किया भारत में व्यापर के लिए सर्वप्रथम पुर्तगाली व्यापारी आये थे|
वास्को डिगामा के भारत आगमन से दोनों देशों के मध्य व्यापार के क्षेत्र में एक नए युग का आरंभ हो गया था । 1500 इसी में 13 जहाज के भिड़े के साथ पेड्रो अल्वरेज केब्रल भारत पहुंचा पुर्तगाली व्यापारियों ने भारत में कालीकट ,गोवा ,दमन ,दीव एवं हुगली के बंदरगाह पर व्यापारिक कोटिया स्थापित कर दिया था काली मिर्च और मसालों के व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित करने के लिए उन्होंने 1503 ईस्वी में कोचीन में पहले दुर्ग की स्थापना की । इसके पश्चात 1505 ईस्वी में पुर्तगाल की सरकार ने फ्रांसिस्को द अलमेडा को भारत में प्रथम पुर्तगाली वायसराय बना कर भेजा था 1509 में उसने पुर्तगाल सेना के बल पर और दीव पर अधिकार कर लिया था।
1509 ईस्वी में पुर्तगाली वायसराय अल्बू कर्क ने बीजापुर के शासक यूसुफ आदिल सहा से गोवा को छीन लिया। धीरे धीरे पुर्तगालियों ने दमन ,सालसेट बेसीन, मुंबई ,हुगली तथा सेंट टॉम पर भी अधिकार कर लिया था । इस प्रकार 1515 ईस्वी में पुर्तगाली व्यापार भारत के साथ ना केवल व्यापार पर एकाधिकार कर चुके थे बल्कि वहां समुद्र तट क्षेत्रों पर भी अधिकार करके प्रशासन करना भी आरंभ कर दिया था।

भारत में डचों का आगमन

डच हालैंड के निवासी थे। भारत से व्यापार करने के लिए हालैंड में 1602 ईस्वी में डच ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की गई।
भारत में व्यापार पर अधिकार को लेकर डच व पुर्तगालियों के मध्य सैनिक संघर्ष हुए जिसमें पुर्तगाली शक्ति कमजोर हुई बच्चों ने शीघ्र गुजरात में कोरोमंडल समुद्र तट पर बंगाल बिहार तथा उड़ीसा में व्यापारिक कोटिया स्थापित किया उन्होंने अपना पहला कारखाना मछलीपट्टनम मैं खोला डचों ने भारत के साथ मुख्यतः मसाला ,नील, कच्चे रेशम ,सीसा, चावल एवं अफीम का व्यापार किया डचों की प्रमुख फैक्ट्री पुलिकट में थी जहां वाह स्वर्ण मुद्रा पगोड़ा को डालते थे।

डचो ने भारत में स्वर्ण मुद्रा चलाएं जिसका नाम पगोडा पढ़ा था।

अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत आगमन से डच कंपनी के व्यापार को धक्का लगा। 1759 ई में अंग्रेजों तथा डचों के मध्य वेदरा का युद्ध हुआ । जिसमें डच पराजित हुए और उनकी शक्ति एवं व्यापार को अत्यधिक धक्का लगा।  धीरे -धीरे डच ईस्ट इंडिया कंपनी की शक्ति भारत से समाप्त हो गई।

भारत में अंग्रेजों का आगमन

अन्य यूरोपीय जातियों की भत्ती अंग्रेजी भारत के साथ व्यापार करने के लिए इच्छुक थे इंग्लैंड के प्रमुख पूंजीपति यो द्वारा 31 दिसंबर 1600 को ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की गई इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने उसे 15 वर्षों के लिए एक चार्टर द्वारा व्यापारिक एकाधिकार प्रदान किया 1608 ईस्वी में कैप्टन हॉकिंस के नेतृत्व में प्रथम अंग्रेजी जहाजी बेड़ा भारत पहुंचा उस समय मुगल सम्राट जहांगीर का शासन हुआ करता था।

भारत में फ्रांसीसियो का आगमन

1664 ईस्वी में फ्रांस ने भारत के साथ व्यापार करने के लिए" द इन्द ओरिएंटल "नामक कंपनी का निर्माण किया। फ्रांसीसी के नेतृत्व के लिए 1667 ईस्वी में फ्रांसीसी दल भारत के लिए रवाना हुआ और 1668 ई में सूरत में प्रथम फ्रांसीसी कोठी का स्थापना किया। इसके पश्चात 1669 में फ्रांसीसी ने मछलीपट्टनम में, 1673 में पुडुचेरी में, और 1690-92 ईस्वी में बंगाल के चंद्रनगर में फ्रांसिसियो ने अपनी व्यापारिक कंपनी की कोठिया स्थापित किया। फ्रांसीसी कंपनी ने पुडुचेरी में सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण फोर्टलुई किले का निर्माण किया। 1740 तक कंपनी का एकमात्र उद्देश्य था भारत से व्यापारिक लाभ प्राप्त करना। परंतु कंपनी ने 1740 के पश्चात भारत की राजनीतिक परिस्थितियों लाभ उठाने का निश्चय किया। फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले ने इस इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया। डुप्ले के इन प्रयासों के कारण ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ संघर्ष को जन्म दिया। जिसके कारण फ्रांसीसियो को पराजित का सामना करना पड़ा और धीरे धीरे भारत से अपना डेरा समेटना पड़ा।

मुगल साम्राज्य का पतन और अंग्रेजों द्वारा इसका लाभ उठाना

 किस मुगल साम्राज्य की स्थापना 1526 ईस्वी में बाबर ने किया था, जिसे अकबर ने अपने कार्यों से शक्ति, प्रतिष्ठा और स्थायित्व प्रदान किया था, उसका औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात मुगल साम्राज्य का पतन होने लगा।
मुगल साम्राज्य की गद्दी के लिए उत्तराधिकारी के लिए लोगों के बीच संघर्ष होने लगा। गद्दी के दावेदार साम्राज्य के सरदारों के सहयोग से गद्दी प्राप्त करने लगे। परिणाम स्वरूप मुगल शासकों को अपने समर्थक सरदारों तथा अमीरों की गलत बातों को भी मानना पड़ा। और वहां मुगल शासक एक प्रकार से वाह कठपुतली की तरह बन गए वहां अपने साम्राज्य के विघटन को नहीं रोक पाए।
   इस काल पतनसील मुगल साम्राज्य के प्रांतों में बंगाल, हैदराबाद ,अवध ,पंजाब , भरतपुर पुणे से लेकर ग्वालियर तक मराठा सरदारों के नए राज्य मैसूर, बेंगलुरु आदि राज्य खड़े हो गए। यहां सभी राज्यों ने मुगल साम्राज्य के पतन में महत्वपूर्ण योगदान दिया। ईरान के शासक नदीम शाह और अफगान के शासक अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण से मुगल साम्राज्य की पतन को अवश्यंभावी बना दिया। इसी स्थिति का लाभ अंग्रेजों ने उठाया।

ईस्ट इंडिया कंपनी का भारत के साथ व्यापार और व्यापारिक प्रतिस्पर्धा का आरंभ

31 दिसंबर 1600 ईसवी को ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत एवं पूर्वी देशों के साथ व्यापार के लिए 15 वर्षों के लिए एक अधिकार पत्र दीया। कंपनी को अधिकार पत्र युद्ध एवं संधि करने के लिए कानून बनाने और कंपनी के एकाधिकारो पर चोट करने वालों को दंडित करने का अधिकार भी दिया गया। ईस्ट इंडिया कंपनी ब्रिटेन के कुछ पूंजीपतियों द्वारा साझा व्यापार करने के लिए बनाई गई थी। कंपनी का उद्देश्य अधिक से अधिक मुनाफा अर्जित करना था। अंग्रेजों की दृष्टि में मुनाफा अर्जित करते समय उचित अथवा अनुचित तरीकों का उपयोग करना गलत नहीं था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए व्यापार- वाणिज्य के बहाने लूटमार करना भी गलत नहीं था। व्यापार तथा लूटमार के बहाने से कंपनी मालामाल हो गया। कंपनी व्यापार में पकड़ स्थापित करने के साथ-साथ राजनैतिक लक्ष्य को लेकर भी साथ चल रही थी। भारत की राजनीतिक कमजोरियों का पता चल  चुका था। अंग्रेजों को लगता था कि व्यापार से अधिक राजनीतिक सत्ता में लाभ है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए शीघ्र ही अंग्रेजों ने अपना प्रयास शुरू कर दिया।

कंपनी के प्रारंभिक कर्मचारी भ्रष्ट, चरित्रहीन और घूसखोर थे उनका उद्देश्य अधिक से अधिक धन वसूलना था।

भारत में कंपनी के व्यापार का विस्तार

ईस्ट इंडिया कंपनी भारत के साथ व्यापार तो प्रारंभ कर दिया लेकिन भारत में कंपनी की कोठी स्थापित नहीं कर सका। जहांगीर ने 1613 ईस्वी में सूरत में कोठी स्थापित करने की अनुज्ञा दे दी। इसके बाद कंपनी नेम सर टामस रो को इंग्लैंड के राजा जेम्स प्रथम दूत के रूप में मुगल दरबार में भेजा। टामस रो मुगल दरबार में 1615 से 1619 तक रहा। टामस रो जागीर से मुगल साम्राज्य में विभिन्न जगहों पर व्यापार की कोटिया स्थापित करने की अनुज्ञा मांगी। इसके पश्चात ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत के सूरत आगरा अहमदाबाद और बड़ोद आदि जगहों पर अपनी कोठिया अब स्थापित कर ली थी।
1668 ईस्वी में इंग्लैंड के सम्राट चार्ल्स द्वितीय ने पुर्तगाली राजकुमारी कैटरीना के साथ विवाह कर लिया, जिसमें दहेज के रूप में मुंबई को मांग लिया और वह 10 पौंड वार्षिक लगान पर , मुंबई ईस्ट इंडिया कंपनी को दे दिया गया। सन 1687 में कंपनी ने सूरत के स्थान पर मुंबई को पश्चिम तट का मुख्यालय बना दिया।
भारत के पूर्वी तत्पर कंपनी ने मछलीपट्टनम ,मद्रास (चैनेई), बंगाल, हरिहरपुर बालासोर पटना, हुगली और हसिम बाजार आदि जगहों पर कंपनी ने कोठिया स्थापित कर ली। भारत के पूर्वी और पश्चिमी भाग में कंपनी के व्यापार में आशाजनक वृद्धि हुई। कंपनी के द्वारा मुंबई मद्रास और कोलकाता किले बनवाए गए और वहां पर पर्याप्त सुरक्षा प्रबंधन करवाया गया।
1717 ईस्वी में कंपनी द्वारा मुगल के सम्राट फर्रूखसियर से महत्वपूर्ण व्यापारिक सुविधा कंपनी  ने प्राप्त कर लिया। जॉन समरन और विलियम हैमिल्टन सम्राट से मिले। मुगल सम्राट गंभीर रोग से बीमार थे। विलियम हैमिल्टन की सहायता से मुगल सम्राट रोग से मुक्त हो गए और वहां प्रसन्न होकर कंपनी को तीन फरमानो द्वारा अनेक  सुविधा दे दी। 3000 वार्षिक रुपए के बदले में कंपनी को बंगाल में बिना किसी कर के व्यापार करने की अनुमति दे दिया गया। कंपनी को कोलकाता के आस-पास के क्षेत्रों को किराए से लेने की अनुमति मिल गई। हैदराबाद प्रांत में देनदारी समाप्त कर दी गई। कंपनी के द्वारा मुंबई में अंकित सिक्कों का समस्त मुगल साम्राज्य मैं प्रचलन हो गया। इस प्रकार से भारत में कंपनी का व्यापार और प्रभुत्व में वृद्धि हुई।

आंग्ल -फ्रांसिसी प्रतिस्पर्धा और कर्नाटक युद्ध: -

आंग्ल-फ्रांसिसी व्यापारिक प्रतिस्पर्धा शीघ्र ही युद्ध में परिवर्तित हो गई दोनों के बीच लड़ाई युद्ध का अध्ययन करने से पहले उनकी शक्ति और साधनों पर एक दृष्टि डालना उचित होगा। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी एक गैर सरकारी संस्था थी जबकि फ्रांसीसी कंपनी पर सरकारी प्रभुत्व था। ईस्ट इंडिया कंपनी अपने व्यापार एवं शक्ति के विस्तार तथा निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र थी जबकि फ्रांसीसी कंपनी समस्त निर्णयों के लिए फ्रांस की सरकार पर निर्भर थी ब्रिटिश कंपनी के अधिकारी और कर्मचारी पूर्ण परिश्रम तथा लगन से कार्य करते थे। जबकि फ्रांसीसी कर्मचारियों के बारे में ऐसा नहीं था सरकारी संरक्षण के कारण एनसीसी कंपनी में स्वाभाविक व्यापारिक गतिशीलता तथा कार्य शीलता का आभा था ब्रिटिश कंपनी का व्यापार विस्तृत था उसका मुनाफा तथा शक्ति एवं साधन फ्रांसीसीयो की तुलना में अधिक था। ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रभुत्व क्षेत्र भी अधिक थे फ्रांसीसी कंपनी की एकमात्र महत्वपूर्ण व्यापारिक बस्ती पुडुचेरी थी जबकि ब्रिटिश कंपनी के पास अनेक प्रमुख बस्तियों थी। इन परिस्थितियों में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और फ्रांसीसी कंपनी अपने अपने व्यापार एवं प्रभुत्व क्षेत्र में वृद्धि के लिए प्रयास कर रहे थे दोनों के कार्य क्षेत्र पश्चिमी एवं पूर्वी भारत थे दोनों के स्वार्थ स्वार्थ एक जैसे थे अतः पारस्परिक प्रतिस्पर्धा का परिणाम  युद्ध था।
कर्नाटक युद्ध और परिणाम
अधिक मुनाफा अर्जित करने और राजनीतिक प्रभुत्व में वृद्धि के लिए ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और फ्रांसीसी कंपनी प्रयत्नशील थी । दोनों एक दूसरे को मात देने के लिए कम से कम मूल्य पर भारतीय माल क्रय करने का प्रयास करती थी। दोनों ही बाजार पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहती थी। दोनों अधिक बाजार तथा सुविधाएं प्राप्त करने के लिए भारतीय राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने लगी व्यापार पर कंट्रोल स्थापित करने के लिए राजनीतिक सत्ता स्थापित करने का सपना देखने लगे।
फ्रांसीसी कंपनी का प्रधान कार्यालय दक्षिण -पूर्वी समुद्र तट पर पुडुचेरी मे थी। जबकि ब्रिटिश कंपनी का प्रमुख केंद्र फोर्ट सेंट चार्ज (मद्रास) में था, जो पुडुचेरी से अधिक दूर नहीं था। दोनों कंपनियों की महत्वकांक्षी मैं वृद्धि होती गई और परस्पर झड़प होने लगी एक दूसरे को समाप्त करने की होड़ में दोनों के बीच भारत में तीन युद्ध हुए जिन्हें इतिहास में कर्नाटक युद्ध के नाम से जाना जाता है।
कर्नाटक का प्रथम युद्ध ( 1746-1748)
कर्नाटक, मुगल साम्राज्य का एक सुबा रह चुका था, मगर अब स्वतंत्र हो चुका था। कर्नाटक की राजधानी अर्काट थी जो मद्रास और पुडुचेरी के बीच स्थित थी यूरोपीय देश ऑस्ट्रिया में उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर फ्रांस एवं ब्रिटेन के बीच 1744 ईस्वी में यूरोप में युद्ध प्रारंभ हो गया जिसका प्रभाव भारत पर भी पड़ा ब्रिटेन और फ्रांस की कंपनी के बीच भारत में भी ताना तानी शुरू हो गई फ्रांसीसी कॉर्नर डुप्ले ने कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन को लालच देकर अपनी तरफ मिला लिया फ्रांसीसी सेना ने मद्रास स्थित ब्रिटिश किले पर अधिकार कर लिया कर्नाटक के नवाब ने डुप्ले से किले की मांग की परंतु डुप्ले ने कर्नाटक किले को सौंपने से मना कर दिया । जिसका परिणाम दोनों सेनाओं के मध्य युद्ध हुआ जिसमें कर्नाटक को पराजय का सामना करना पड़ा।
1748 ईस्वी में यूरोप में फ्रांस और ब्रिटेन के बीच समझौता हो गया परिणाम स्वरूप भारत में भी दोनों के बीच शांति संधि हो गई ।मद्रास का किला ब्रिटिश कंपनी को वापस कर दिया गया। यद्यपि दोनों के बीच शांति हो गई मगर इस युद्ध में कुछ बातों को जन्म दिया कर्नाटक की हार से यूरोपीय युद्ध प्रणाली की श्रेष्ठता सिद्ध हो गई। यूरोपी कंपनियों को यह बात समझ में आ गई कि भारतीय राज्यों की आंतरिक राजनीति में हस्तक्षेप करके अपने प्रभुत्व में वृद्धि की जा सकती है। इस युद्ध ने दोनों कंपनियों की पारस्परिक प्रतिद्वंदिता तथा ईर्ष्या द्वेष में और अधिक वृद्धि दिया।
कर्नाटक का द्वितीय युद्ध (1748-1754)
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी एवं फ्रांसीसी कंपनी के बीच हैदराबाद एवं कर्नाटक के उत्तराधिकार को लेकर 1748 से 1754 ईस्वी के मध्य युद्ध हुआ फ्रांसीसी कंपनी हैदराबाद में मुजफ्फर जंग को और कर्नाटक में चांदा साहब को शासक बना दिया जबकि ब्रिटिश कंपनी कर्नाटक में मोहम्मद अली को और हैदराबाद में नसीर जंग को समर्थन दे रही थी फल था युद्ध प्रारंभ हो गया नसीर जो युद्ध में पराजित हुआ और मारा गया मुजफ्फर जंग ने युद्ध में सहायता देने के लिए फ्रांसीसी कंपनी को 50,000 पौंड एवं 10,000 वार्षिक की एक जागीर दी उधर क्लाइव के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने अर्काट का घेरा डाल दिया। चांदा साहब युद्ध में मारा गया संपूर्ण कर्नाटक पर ब्रिटिश कंपनी का अधिकार हो गया था इस प्रकार कर्नाटक में अंग्रेजों के और हैदराबाद में फ्रांसीसी कंपनी के प्रभु तू में वृद्धि हुई हैदराबाद की रक्षा के नाम पर फ्रांसीसी कंपनी ने एक सेना वह रख दिया जिसका खर्च हैदराबाद को ही देना था इस प्रकार भारतीय राज्यों से सेना का खर्च लेकर उनकी सुरक्षा के नाम पर उनके ऊपर कंट्रोल रखने के लिए एक नया तरीका सामने आया।
कर्नाटक का तृतीय युद्ध (1756 से 1763)
   यूरोप में फ्रांस एवं ब्रिटेन के बीच 7 वर्षीय युद्ध का प्रारंभ हो गया उसके तुरंत बाद भारत में भी उनके मध्य युद्ध प्रारंभ हो गया जनवरी 1760 में वांडीवाश के युद्ध में फ्रांसीसी पराजित हुए युद्ध में अंग्रेज कंपनी को विजय मिल गई कर्नाटक पर तो उनका अधिकार था ही  अब हैदराबाद से भी फ्रांसीसी को निकाल दिया था। भारत में फ्रांसीसी कंपनी के प्रभुत्व वाले समस्त क्षेत्र ब्रिटिश कंपनी के हाथ में आ गए थे।
  इस प्रकार भारत में राजश्री कंपनी की राजनीति प्रभुसत्ता प्राप्त करने की महत्वाकांक्षा का अंत हो गया और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के सामने संपूर्ण भारत पर प्रभु सत्ता स्थापित करने का द्वार खुल गया था।

बंगाल में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना
अली वर्दी खान 1740 ईसवी में बंगाल का नवाब बना वह योग्य एवं कूटनीति शासक था वह अंग्रेजों द्वारा की गई कोलकाता की किलेबंदी को पसंद नहीं करता था 1756 ईस्वी में अली वर्दी खान की मृत्यु हो गई। इसके बाद सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बना। अली वर्दी खान की बड़ी पुत्री घसीटा बेगम का पुत्र शौकत जंग स्वयं नवाब बनना चाहता था। और उसे दीवान राजबल्लभ का सहयोग प्राप्त था अली वर्दी खान का बहनोई एवं सेनापति मीर जाफर भी नवाब बनने का सपना देख रहे थे। यह सभी अंग्रेजों के संरक्षण में षड्यंत्र को जन्म दे रहे थे। बंगाल का नवाब सिराजुद्दौला अंग्रेजों द्वारा की जा रही कोलकाता की किलेबंदी से बहुत नाराज था बंगाल में अंग्रेजों द्वारा बिना कर दिए व्यापार किया जा रहा था। जिससे राजकीय खजाने को नुकसान हो रहा था अंग्रेज नवाब को उचित सम्मान और भेट नहीं देते थे।
  अंग्रेजों द्वारा की जा रही उकसाने वाली कार्यवाही से नाराज होकर 4 जून 1756 ईस्वी को नवाब ने कासिम बाजार की फैक्ट्री पर अधिकार कर लिया अब वहां कोलकाता की तरह बड़ा गवर्नर ड्रेक व्यापारियों महिलाओं एवं बच्चों के साथ कोलकाता से भाग गया 22 जून 1756 ईस्वी को कोलकाता पर नवाब का अधिकार हो गया।
अलीनगर की संधि
  कोलकाता के पतन का समाचार सुनकर रॉबर्ट क्लाइव चेन्नई मद्रास से एक सेना लेकर बंगाल पहुंच गया जनवरी 1757 इसी में एक छोटी लड़ाई के बाद कोलकाता पर लाइव का अधिकार हो गया नवाब युद्ध में पराजित हुआ और अलीनगर की संधि द्वारा अंग्रेजों की समस्त मांगों को स्वीकार कर लिया।
प्लासी का युद्ध ( 1757)
   अलीनगर की संधि द्वारा अंग्रेजों को बंगाल में अनेक सुविधाएं मिल गई तथा वह समस्त बंगाल पर अधिकार करना चाहते थे इसके लिए उन्होंने तैयारियां प्रारंभ कर दिया क्लाइव ने फ्रांसीसी बस्ती चंद्रनगर पर अधिकार कर लिया और नवाब कुछ नहीं कर सका नवाब के दुश्मनों को क्लाइव ने अपनी सुरक्षा में ले लिया क्लाइव ने सेनापति मीर जाफर राय दुर्लभ जगत सेठ एवं अमीरचंद के साथ एक गुप्त समझौता कर लिया जिसके अनुसार सिराजुद्दौला को हटाकर मीर जाफर को बंगाल का नवाब बना दीया षड्यंत्र की रचना के बाद युद्ध का बहाना खोजा जाने लगा। नवाब पर अलीनगर की संधि भंग करने का आरोप लगाया गया आरोप लगाते ही क्लाइव सेना सहित मुर्शिदाबाद के लिए चल पड़ा।
   23 जून 1757 स्पीक को क्लाइव तथा नवाब की सेनाओं के बीच प्लासी के मैदान में युद्ध हुआ नवाब के सेनापति मीर जाफर ,राय दुर्लभ, तथा यार लतीफ खान चुपचाप युद्ध का नजारा देखते रहे नवाब पराजित हुआ और उसे मीर जाफर के पुत्र मिलन ने मार डाला।
    सैनिक दृष्टि से प्लासी के युद्ध का कोई महत्व नहीं था मगर राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से इस युद्ध का अधिक महत्व है बंगाल का नया नवाब मीर जाफर अंग्रेजों के हाथों की कठपुतली बनकर रह गया बंगाल के राजनीतिक जीवन पर अंग्रेजों का अधिकार था आर्थिक दृष्टि से प्लासी युद्ध के बाद बंगाल की लूट प्रारंभ हो गई।
    मीर जाफर ने लगभग तीन करोड़ रुपए अंग्रेजों को दिए बंगाल बिहार और उड़ीसा में कर मुक्त व्यापार का अधिकार मिल गया कंपनी को कोलकाता के समीप 24 परगना की जमीदारी मिल गई कोलकाता में कंपनी को सिक्के डालने का अधिकार मिल गया इस प्रकार प्राप्त प्लासी के युद्ध ने कंपनी को बंगाल की सत्ता सौंप दी।

बक्सर का युद्ध 1764 ई.
प्लासी के युद्ध के बाद बंगाल का नवाब मीर जाफर कंपनी के लिए एक कठपुतली शासक के समान था नवाब का खजाना कंपनी और उसके कर्मचारियों को वेट और रिश्वत देने में खाली हो गया कंपनी की मांग में निरंतर वृद्धि होती जा रही थी कंपनी और उसके दलाल किसानों और दस्तक कारों को लूट रहे थे कंपनी कम से कम मूल्य पर दस्त कारों को अपना सामान विक्रय करने के लिए विवश करती थी इससे पहले कि नवाब मीर जाफर कोई कठोर निर्णय लेता कंपनी ने उसे गद्दी से हटाकर उसके दामाद मीर कासिम को बंगाल का नया नवाब बना दिया था।
       मीर कासिम कंपनी पर अपनी निर्भरता को कम करना चाहता था उसने शक्ति संचय करना प्रारंभ किया और उन्होंने अंग्रेजों के वफादार अफसरों को नौकरी से हटा दिया नया सैनिक संगठन खड़ा किया व्यापारिक चुंगी सभी के लिए समाप्त कर दी जिससे कंपनी को नुकसान हुआ परिणाम स्वरूप 1763 ईस्वी में नवाब मीर कासिम और कंपनी के मध्य युद्ध हुआ जिसमें मीर कासिम पराजित हुए और मीर कासिम भागकर अवध चला गया।
    अवध का नवाब शुजा उड दौला भी अंग्रेजों से नाराज था मुगल सम्राट शहालम भी दिल्ली से भागकर अवध में ही निवास कर रहा था तीनों ने मिलकर बक्सर नामक स्थान पर 23 अक्टूबर 1764 ईस्वी को कंपनी की सेनाओं के साथ युद्ध किया मुगल सम्राट और दोनों नवाब युद्ध में पराजित हुए 1765 में सुझाव दो लाख तथा शाह आलम ने क्लाइव के साथ संधि कर ली।

अवध के नवाब सुजाउधौला के साथ इलाहाबाद की संधि: -
  अंग्रेजों ने अगस्त 1765 ईस्वी में अवध के नवाब शुजा उड दौला के साथ इलाहाबाद की संधि करने की बात की जिसमें कई शर्ते रखी: -
1) अवध के नवाब से ₹5000000 युद्ध के हर्जाने के रूप में लेकर अंग्रेज उसे अवध का राज्य लौटा देंगे।
2) कड़ा और इलाहाबाद तथा उसके आसपास का क्षेत्र अवध से पृथक कर मुगल बादशाह शाह आलम को दिया जाएगा।
3) चुनार का दुर्ग अंग्रेजों को मिलेगा।
4) अंग्रेजों को आवाज की सीमाओं के भीतर बिना कर दिए व्यापार की सुविधा मिलेगी।

मुगल बादशाह शाह आलम के साथ संधि:-
1) अवध से कड़ा व इलाहाबाद तथा उसके आसपास के क्षेत्र मुगल बादशाह को दे दिए गए।
2) अंग्रेजों ने मुगल बादशाह को ₹2600000 वार्षिक देना स्वीकार किया।
3) इस सहायता के बदले मुगल बादशाह ने 12 अगस्त 1765 को एक फरमान द्वारा अंग्रेजों को बंगाल बिहार और उड़ीसा की दीवानी का अधिकार दे दिया।

इस प्रकार मुगल बादशाह अंग्रेजों का आश्रित हो गया और अवध उनका मित्र बन गया अवध से मित्रता हो जाने के कारण कंपनी को मराठों के आक्रमण का डर नहीं था मीर जाफर को पुनः बंगाल का नवाब बनाया गया।

भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का सत्ता का विस्तार
बंगाल पर अधिपत्य जमाने के बाद अंग्रेजों ने दक्षिण की ओर दृष्टि डाली। दक्षिण भारत में उस समय मराठे, हैदराबाद का निजाम और मैसूर में हैदर अली की सत्ता थी। इन तीनों सताओ को एकजुट होने से रोकना, यहां अंग्रेजों का ध्येय बन गया। अंग्रेजों ने निजाम को मराठी व हैदर अली से बचाने का लालच देकर तथा प्रादेशिक लाभ देकर अपनी और कर लिया।
अंग्रेज -मैसूर संघर्ष
मैसूर केवाडिया राजा दुर्बल हो चुके थे। उनके योग्य तथा कुशल सेनानायक हैदर अली राजा को पदच्युत करके सत्ता पर अधिकार कर लिया था। हैदर अली अंग्रेजों के बढ़ते प्रभाव के कारण संकित था। सट्टा की प्रतिस्पर्धा में अंग्रेज और मैसूर के बीच  1767 से 1799 तक चार युद्ध लड़े गए। प्रथम युद्ध वारेन हेस्टिंग्स के काल में हुआ था इस युद्ध में हैदर अली  विजयी हुआ और विवश होकर अंग्रेजों ने हैदर अली से संधि कर लिया। संधि के शर्तों के अनुसार अंग्रेजों ने हैदर अली को आश्वासन दिया और कहा मैसूर पर यदि मराठों द्वारा आक्रमण किया जाता है तो उसमें सहायता देंगे। परंतु अंग्रेजों ने इस आश्वासन को नहीं निभाया। इस कारण दूसरे मैसूर युद्ध हुआ जिसमें फ्रांसीसी कंपनी ने हैदर अली की मदद की इस युद्ध के बीच में हैदर अली की मृत्यु हो गई। हैदर अली का पुत्र टीपू सुल्तान ने इस युद्ध को जारी रखा। अपनी स्थिति को दुर्बल देख टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों से संधि कर लिया। टीपू अंग्रेजों का कट्टर विरोधी था। अंग्रेजों से मुकाबला करने के लिए टीपू सुल्तान ने अपने लोगों को यूरोपीय ढंग से प्रशिक्षित तथा सुसज्जित करने का प्रयास किया। टीपू के प्रयत्नों से अवगत होते ही अंग्रेजों ने तृतीय  आंगल- मैसूर युद्ध प्रारम्भ कर दिया। निजाम और मराठे अंग्रेजों से मिले हुए थे इसलिए टीपू अकेला लड़ता रहा। और अंग्रेजों ने टीपू को पराजित कर दिया जिसके कारण किए गए संधि के अनुसार टीपू को अपने राज्य का संपूर्ण भाग सपना पड़ा।
   कुछ समय पश्चात टीपू ने एक बार फिर अपनी शक्ति को सुदृढ़ करने का प्रयास किया उसने अपने दूत्त अरब, काबुल ,कुस्तुनतुनिया, डांस और मॉरीशस भेजकर सहायता प्राप्त करने का प्रयास किया। उस समय कंपनी का गवर्नर जनरल लार्ड वेलेजली था। अपनी विस्तार वादी नीति के अनुसार वेलेजली ने टीपू के विरुद्ध चौथा आंगल मैसूर युद्ध छेड़ दिया। इस प्रकार टीपू सुल्तान अपनी राजधानी का रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गया और मसूर पर अंग्रेजो का कब्जा हो गया।
अंग्रेज -मराठों का संघर्ष
मुंबई अंग्रेजों के पश्चिम भारतीय व्यापार का केंद्र था। परंतु उसके आसपास के विदेशों पर मराठों की सत्ता थी। इस वजह से अंग्रेज वहां पर अपनी अधिकार स्थापित नहीं कर पा रहे थे। मैसूर के पश्चात मराठों की सत्ता एकमात्र अंग्रेजों के लिए चुनौती थी। अंग्रेज मराठों के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप करने का अवसर ढूंढ रहे थे। दुर्भाग्य से सन 1761 में अब्दाली के हाथों पानीपत के तृतीय युद्ध में पराजित होने पर मराठों की स्थिति कुछ दुर्बल हो गई। इसी समय योग्य पेशवा माधवराव की मृत्यु हो जाने के कारण अल्पवयीन उत्तराधिकारी के विरुद्ध उसके चाचा रघुनाथ राव ने पेशवा पद के लिए दावा प्रस्तुत किया। नाना फडणवीस और मराठा सरदारों- भोसले, गायकवाड ,सिंधिया और होलकर ने इसका विरोध किया। इसके पश्चात रघुनाथ राव ने अंग्रेजों से एक संधि करके उनसे सहायता ली। इस कारण से अंग्रेजों को मराठों के बीच प्रवेश करने का अवसर मिल गया। 
पहला अंग्रेजों- मराठों युद्ध सन 1775 में हुआ। इस युद्ध में मराठा और सरदार साथ होने के कारण इस युद्ध का परिणाम अनिर्णय रहा और इसी प्रकार 20 वर्षों तक दोनों के बीच शांति का माहौल बना रहा।
दूसरा अंग्रेज- मराठों युद्ध लार्ड वेलेजली के समय हुआ था। तब तत्कालीन पेशवा बाजीराव द्वितीय
 ने अंग्रेजों की सहायक संधि स्वीकार कर लिया था। अंग्रेजों से सैनिक सहायता प्राप्त करने के बदले में पेशवा ने उनकी सभी शर्तें स्वीकार कर लिया। शक्तिशाली मराठा सरदारों ,भोसले और सिंधिया मराठा राज्य की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध सन 1803 में युद्ध छेड़ दिया। महत्वपूर्ण युद्ध लड़े गए लेकिन अंग्रेजी सेना के सामने वहां टिक नहीं सके। अंत में दोनों सरदारों को अंग्रेजों से अलग-अलग संधि करने पर विवश होना पड़ा। प्रारंभ से ही होलकर इस युद्ध से अलग रहा था। किंतु उसने शीघ्र ही स्वतंत्र रूप से युद्ध प्रारंभ कर दिया। इस युद्ध में राजस्थान के भरतपुर कि राजा ने उसका साथ दिया, अंग्रेजों की सेना ने यद्यपि होलकर को पराजित कर दिया। तथा भरतपुर को नहीं जीत सके, अंत में अंग्रेजों ने उनसे शांति संधि कर ली।
तीसरा और अंतिम अंग्रेज- मराठा युद्ध सन 1817 से 1818 लाल हिस्ट्री के शासनकाल में हुआ। इसमें पहले ही अंग्रेजों की सहायक संधि स्वीकार कर चुका था। किंतु 1817 में ब्रिटिश प्रेसिडेंट ने उस पर नई सहायक संधि पर हस्ताक्षर के लिए दबाव डाला। साथ ही पेशवा को बाध्य किया गया की वह मराठा संघ का नेतृत्व छोड़ दे। पेशवा बाजीराव द्वितीय अंग्रेज निरंतर हस्तक्षेप से क्रोध हो गए और उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध प्रारंभ कर दिया। भोंसले और होलकर ने भी युद्ध की घोषणा कर दिया। भिन्न -भिन्न लड़ाई मे अंग्रेजो की सेना ने भोंसले, होलकर और पेशवा को पराजित किया। पेशवा के राज्य का एक भाग शिवाजी के वंशज को सतारा में दे दिया गया और बाकी अंग्रेजी राज्य में मिल गया। अन्य मराठा सरदारों-भोंसले, होलकर, सिंधिया और गायकवाड राजनैतिक और सैनिक शक्तियों में कटौती करके उनको अंग्रेजों के संरक्षण में राज् करने का अधिकार मिल गया। इस प्रकार मराठा शक्ति को नष्ट कर अंग्रेज भारत के प्रमुख सत्ताधीश बन गए।

वेलेजली की सहायक संधि
लॉर्ड वेलेजली को सन 1798 भारत का जनरल गवर्नर बनाकर ब्रिटिश भेजा गया। वेलेजली का लक्ष्य अधिक से अधिक साम्राज्य विस्तार करना था। उनका लक्ष्य भारतीय राजे- नवाबों को ब्रिटिश झंडे के नीचे लाना था। इसके लिए उसने युद्ध तथा संधि के द्वारा भारतीय राज्यों को कंपनी के साथ जोड़ने का कार्य किया। युद्ध के द्वारा मराठों और मैसूर को कंपनी के अधीन लाया।

भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार में लार्ड वेलेजली , लॉर्ड हेस्टिंग्स और लॉर्ड डलहौजी का महत्वपूर्ण योगदान था।

लार्ड वेलेजली ने सहायक संधि के द्वारा भारत के अनेक राज्यों को कंपनी के अधीन किया। सहायक संधि में निम्नलिखित बातें शामिल थी -
1, सहायक संधि अपनाने वाले भारतीय राज्य को अपनी सुरक्षा के लिए ब्रिटिश सेना की एक टुकड़ी को अपने राज्य की सीमाओ में रखना होता था।
2, ब्रिटिश सेना के खर्च के लिए संधि स्वीकार करने वाले राज्य को एक निश्चित धनराशि अथवा अपने राज्य का एक भूभाग कंपनी को देना होता था।
3, भारतीय शासक के दरबार में एक अंग्रेज ऑफिसर को भी रखना होता था। जो भारतीय शासक के कार्यों में हस्तक्षेप किया करता था।
  यह व्यवस्था भारतीय राज्यों को सुरक्षा देने के नाम पर किया गया था, जबकि यहां उनकी स्वतंत्रता का हनन करती थी, यहां एक मकड़जाल था, जो इसे स्वीकार करता था वह सदैव के लिए उनके जाल मे फस जाता था। सहायक संधि स्वीकार करने वाले भारतीय राज्यों में हैदराबाद और अवध प्रमुख थे। सन 1803 ईस्वी में पेशवा ने और फिर सिंधिया और भोसले ने भी इस संधि को स्वीकार कर लिया।

लॉर्ड हेस्टिंग्स द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार
लॉर्ड हेस्टिंग्स सन 1813 ईस्वी में भारत गवर्नर जनरल बनकर आया। वाह 18 सो 23 ईस्व तक इस पद पर रहा। उसने नेपाल के साथ युद्ध करके सुगौली की संधि  के लिए मजबूर किया। मराठों को पराजित कर  उसने मराठों संघ को भंग कर दिया।

लॉर्ड डलहौजी की विलय नीति
भारतीय राज्यों को प्रत्यक्ष रूप से कंपनी के अधीन करने के लिए गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी ने विलय नीति (हड़प नीति) का अनुसरण किया। सबसे पहले लॉर्ड डलहौजी ने भारतीय राजाओं पर दत्तक पुत्र लेने की प्रथा पर रोक लगा दी। जिसके कारण शासक बिना पुत्र के मर गए। इसके पश्चात उन राज्यों को ब्रिटिश कंपनी ने अपने अधीन कर लिया, इन राज्यों में झांसी, नागपुर ,सातारा प्रमुख आते थे। मैसूर और पंजाब के विस्तृत राज्यों को ब्रिटिश द्वारा युद्ध करके ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन कर लिया।
   1856 ईस्वी में अवध के राजा पर कुशासन का आरोप लगाकर अवध को भी ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन कर लिया।
 सेंड 1757 से 1857 तक संपूर्ण भारत ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन आ गया था। भारत को अपने अधीन करने के लिए कंपनी के द्वारा जो नीतियां अपनाई गई थी, उन्हीं नीतियों के कारण विरोध की चिंगारियां भड़की और 1857 ई मैं स्वतंत्रता संग्राम प्रारंभ हुआ।
व्यापारिक और राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में अंग्रेजों की सफलता के कारण
कर्नाटक युद्ध में मिली सफलता के कारण अंग्रेजों को व्यापारिक प्रतिस्पर्धा में विजय बना दिया और प्लासी तथा बक्सर के युद्ध ने अंग्रेज कंपनी को भारती सत्ता की राजनीतिक पर अधिकार दे दिया। अब प्रश्न यह उठता है कि वह कौन से कारण थे? जिनके कारण कम समय में ब्रिटिश सत्ता को भारत का भाग्य विधाता बना दिया। ब्रिटिश कंपनी ने न केवल व्यापारिक प्रतिस्पर्धा में  फ्रांसीसी, पुर्तगाल ,डच को अपने रास्ते से हटाया बल्कि भारत की राजनीतिक सत्ता को प्राप्त करने का मार्ग साफ कर दिया। ब्रिटिश कंपनी में प्लासी और बक्सर का युद्ध जीत कर बंगाल ,बिहार, उड़ीसा, अवध के नवाब तथा मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय को अपने आश्रित कर लिया।
  ब्रिटिश कंपनी की विजय में भारत की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति भी जिम्मेदारी थी। औरंगजेब के पश्चात भारत के राजनीति बिखरने लगा। जिसके पश्चात भारत में अनेक छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना हुई। जिनकी सैनिक शक्ति कम थी। राजा प्रायः विलासिता और अहंकार में डूबे रहते थे। उन्हें ना अपने पड़ोसी राज्यों की गतिविधियों की चिंता थी और ना ही अपने प्रजा की दुखो की। उनकी सेनाए कमजोर, पथभ्रष्ट और अनुशासनहीन थी। भारत की प्रमुख शक्तियां अफगान,  सीख, रूहेले ,जाट आदि। दूसरे के विरोधी गुटों में शामिल थे। नाम मात्र के सम्राट मुगल शक्तिहीन, वैभव हिन, कमजोर और साधनहीन थे। ब्रिटिश कंपनी ने इन्हीं दुर्बलता का फायदा उठाया और अपनी सफलता का रास्ता बनाया।
ब्रिटिश कंपनी भारतीय राजाओं और नवाबों की राजनीतिक उदासीनता प्रतिस्पर्धा का लाभ अपने पक्ष में उठाया। किसी एक राज्य को धन की सहायता देकर दूसरे राज्य को कमजोर किया और आगे चलकर दोनों ही राज्यों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। फूट डालो और राज करो नीति उनके लिए वरदान बन गया था।
अंग्रेजों की सफलता का कारण उनके छोटे हथियार और प्रशिक्षित सेना थी। अंग्रेजों के पास एक अच्छा तोफखाना भी था। जो उनके विजय का कारण बना।
   18 वीं शताब्दी में भारत में राजनीति राजकता, राजनीतिक बिखराव, केंद्र का कमजोर होना आदि ऐसे महत्वपूर्ण तत्व थे, जिन्होंने ब्रिटिश कंपनी को सफलता प्रदान की। मराठे जिनसे अपेक्षा  थी कि तत्कालीन अराजकता दौर में राजनीतिक स्थिरता कायम कर पाएंग आपसी संघर्ष में उलझे थे अतः वहां अपेक्षा को पूरा नहीं कर पाए।
   अंत में इतना कह सकते हैं कि ब्रिटिश कंपनी को मिली सफलता उनकी योग्यता मे नहीं बल्कि भारत की राजनीतिक कमजोरी में था।

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